मेरी सलीब
अपने कांधों पे उठाना है मुझे,
मेरी ही सलीब को
इस शहर में,
इस आसमान के नीचे ही.
यह सलीब, न किसी ने देखी, न जानी ही
अनजानी, इस सलीब को लिए कंधो पे
कोशिश करती हूँ,
पहचानने को, ख़ुद को,
ख़ुद के अन्दर से.
निकालने को, ख़ुद को,
ख़ुद की गहराई से.
और यह सलीब है कि
धकेले जाती है
ख़ुद को ख़ुद में ही...
डोबोये जाती है
अपने ही लहू के पानियों में
लिए इस सलीब को ही
जीना है मुझे
उभरना भी है
आगे बढना भी है
लिए अपनी सलीब अपने ही कांधों पे...
Copyright © Vim
One of those poems, which are making me think alot...making me bring changes...help me fixing it friends....I have a junoon to fix it now!
2 Signature:
Excellent.. Loved the use of a hidden motif all throughout.
This burden is mine to bear.. Superb!
Thank you Varun....Miss you around!
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